ब्रह्मलीन समर्थ गुरु परम संत
श्री डॉ चतुर्भुज सहायजी,
संस्थापक-रामाश्रम सत्संग,मथुरा
(१८८३-१९५७)


ब्रह्मलीन मौन संत
परम पूज्या जिया माँ
(१९००-१९८५)

रामाश्रम सत्संग, मथुरा की स्थापना ब्रह्मलीन समर्थ गुरु डॉ० चतुर्भुज सहाय जी महाराज (गुरुमहाराज) ने अपने गुरु महात्मा श्री रामचन्द्र सहाय जी महाराज के नाम पर १९३० ई० में की थी। उन्होंने अपने अनुभव के आधार पर एक ऐसी शास्त्र सम्मत आध्यात्मिक साधना शैली का प्रतिपादन किया जो संतमत के सिद्धान्तों पर आधारित है। संतमत का आधार है - गुरुध्यान तथा उसके माध्यम से परमात्मा में आत्मा का विलय । गुरुमहाराज ने अपनी शैली को अध्यात्म योग का नाम दिया। इस अध्यात्म योग में प्रवेश से पूर्व , साधक के लिए यह आवश्यक था कि कर्म,उपासना या ज्ञान किसी भी मार्ग से उसे पूर्ण निष्कामता प्राप्त हो गयी हो क्योंकि ईश्वरीय विधान के अन्तर्गत ऐसा हो जाने के बाद ही मुक्तावस्था तक ले जाने के लिए सद्गुरु की प्राप्ति होती है। सद्गुरु ही अपनी शक्ति के द्वारा साधक के संस्कारों एवं उसके मन , बुद्धि तथा अहंकार पर पड़े हुए विकारों को हटाने की क्षमता रखता है । ऐसा हुए विना साधक आत्मस्थिति में नहीं आ सकता । सद्गुरु ही साधक को विज्ञानमय, आनन्दमय एवं समर्पणयोग आदि के माध्यम से सायुज्यमुक्ति के द्वार पर लाकर खड़ा कर देता है। रामाश्रम सत्संग , मथुरा के जनक होने के नाते गुरुमहाराज ने अपने योग्य शिष्यों को संतमतानुसार अपना ही ध्यान कराया और उन्हें पूर्णता प्रदान कर स्वयं जैसा ही बना दिया। उनके ऐसे शिष्यों ने जिन्होंने पूर्णता प्राप्त कर ली थी , गुरु महाराज द्वारा दी गई साधना पद्धति का न केवल मंत्रवत् पालन एवं प्रचार - प्रसार किया अपितु उसका पूर्णरूपेण संरक्षण भी किया।

ब्रह्मलीन परम शिष्य
श्री जगन्नाथ प्रसाद जी
संरक्षक-मूल साधना शिविर
रामाश्रम सत्संग, मथुरा
(१९२५-२०१२ )

गुरुमहाराज ने अपनी साधना शैली में अध्यात्म योग पर जोर देने के बावजूद ऐसा प्रावधान भी रखा , जिसे अपनाकर हर स्तर का साधक अध्यात्म मार्ग में आगे बढ़ता रहे। गुरु महाराज ने अपनी पुस्तकों में अपनी पंचसूत्री साधना शैली का कहीं भी विधिवत् उल्लेख नहीं किया है । उनकी पुस्तक "योग फिलोसफी एवं नवीन साधना" में पृष्ठ संख्या ८९ से ९३ तक पाँचों सूत्रों के महत्व की झलक जरूर मिलती है । यह शैली उनके समर्थ शिष्यों के सीने-ब-सीने ही साधकों तक पहुंचती रही । उन्हीं शिष्यों में एक , पूज्य श्री जगन्नाथ प्रसाद जी(भैया जी) ने अपनी पुस्तक "प्रवचन प्रभा" में पहलीबार अपने गुरु की साधना का स्पष्ट उल्लेख किया है। इस पुस्तक को इस वेबसाइट के माध्यम से भी देखा जा सकता है । गुरु महाराज का यह स्पष्ट निर्देश था कि इस शैली को मंत्रवत् लिया जाय और इसमें किसी भी परिस्थिति में कोई परिवर्तन नहीं किया जाय । ब्रह्मलीन संत पूज्य मझले भैया (श्री हेमेन्द्र कुमार जी महाराज ) ने अपनी पुस्तक "अतीत,आगत और अनन्त" में निम्नलिखित शब्दों में गुरुमहाराज के इस निर्देश को उद्धृत किया है-"श्री गुरु महाराज द्वारा बताई गई साधना , उपासना (आन्तरिक सत्संग) हर तरह से पूर्ण साधना है । इसी तारतम्य में मेरा भी निवेदन है कि मूल साधना और सत्संग के मूल सिद्धान्त में हमलोग किसी समय भी कोई परिवर्तन कदापि न करें , नहीं तो जो गुरुशक्ति इस सत्संग का संचालन कर रही है,उसमें कमी आ जायेगी।"

गुरु महाराज के १९५७ ई० में पर्दा करने के बाद काल-चक्र की गति या यों कहें कि नियति ने धीरे -धीरे इस साधना पद्धति में कई बार छोटे -छोटे परिवर्तन कर दिये। इतना ही नहीं २००६ ई० में इसके स्थान पर एक सर्वथा नवीन पद्धति अवतरित हो गई । इस परिवर्तन का प्रभाव साधक या उपदेशक वर्ग पर तो देखने में नहीं आया परन्तु गुरु महाराज के उस शिष्य के ह्रदय में , जिसमें आध्यात्मिक पूर्णता थी , पीड़ा अवश्य हुई और वह थे पूज्य श्री जगन्नाथ प्रसाद जी (अब ब्रह्मलीन ) महाराज । उन्होंने २००७ ई० में अपने गुरु की साधना की सुरक्षा और प्रचार-प्रसार की विधिवत् एक कार्य योजना का शिलान्यास किया , जिसमें परस्पर मिलना-जुलना , साधना शिविरों का आयोजन करना , प्रचारकों की नियुक्ति करना तथा पुस्तक प्रकाशन आदि करना सम्मिलित था । इन माध्यमों के द्वारा तभी से साधकों को व्यापक रूप से जागरूक किया जाने लगा और यह सुनिश्चित किया गया कि जागरूकता का यह क्रम अनवरत रूप से तब तक चलता रहेगा जब तक वांछित परिणाम प्राप्त न हो जाये।

परम पूज्य भैया जी (श्री जगन्नाथ प्रसाद जी) द्वारा पुनः गुरु महाराज के रामाश्रम सत्संग , मथुरा की मूल धारा को सुरक्षित किये जाने के पश्चात् उसके सभी मूल तत्व साधक -वर्ग को ज्यों के त्यों उपलब्ध हो गये। सही अर्थ में यही मूल धारा , जिसमें गुरु महाराज की परमशक्ति एवं आशीर्वाद निवास करती है , वास्तविक रामाश्रम सत्संग है । यहाँ सबकुछ पूर्ववत् एवं आध्यात्मिक पूर्णता से ओतप्रोत है। धन्य हैं हमसब,जिन्हें मूल धारा की यह शीतल गुरुच्छाया मिल रही है ।


62456
मुख्यपृष्ठ | मूल साधना | उद्देश्य| सम्पर्क पता

Copyright ©2014, Ramashram Satsang,Mathura(Mool Dhara) , All rights reserved.